कोरबा। देश के सबसे बड़े कोयला और बिजली उत्पादक जिले कोरबा में पर्यावरणीय क्षति की भयावह तस्वीर सामने आई है। एक नई शोध रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 30 वर्षों में कोरबा की हरियाली खतरनाक स्तर तक कम हो गई है। 1995 में जहां जिले का 35.56% हिस्सा घने जंगलों से आच्छादित था, वहीं 2024 में यह घटकर केवल 14% रह गया है। बेतहाशा ओपनकास्ट कोयला खनन और कमजोर पुनर्स्थापन नीतियों को इसका प्रमुख कारण बताया गया है।
संत गहिरा गुरु विश्वविद्यालय, अंबिकापुर के पर्यावरण विज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. जोयस्तु दत्ता ने बताया कि कोरबा में भूमि उपयोग और आवरण (LULC) में बदलाव का समग्र अध्ययन नहीं किया गया था। उनकी टीम ने 1995 से 2024 तक के नुकसान का आंकलन किया और पाया कि रिक्लेमेशन रणनीतियां बेहद अपर्याप्त रही हैं।
रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि खनन के कारण न केवल जंगल नष्ट हुए, बल्कि कृषि भूमि भी बंजर हो गई। इससे मृदा क्षरण, जल संधारण क्षमता में कमी और जैव विविधता पर गंभीर असर पड़ा है। कोरबा की 40% से अधिक आदिवासी आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है, जो स्वच्छ हवा, पानी और खेती के संसाधनों से वंचित हो रही है।
वर्तमान में कोरबा में 13 कोयला खदानें संचालित हो रही हैं, और 2025 तक 4 और खदानों के शुरू होने की संभावना है। इस दौरान कोयला उत्पादन 180 मिलियन टन तक पहुंच सकता है। शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि केवल वृक्षारोपण अब पर्याप्त नहीं है; एक मजबूत नीतिगत बदलाव की आवश्यकता है।
रिपोर्ट में राष्ट्रीय स्तर पर भी चिंता जताई गई है, जिसमें बताया गया कि भारत की 44% भूमि पर क्षरण हो चुका है, जो वैश्विक औसत (23%) से कहीं अधिक है। यह शोध छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड और ताइवान के शोध संस्थानों के सहयोग से किया गया है।
वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि कोरबा जैसे आकांक्षी जिले में पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है, ताकि कोयला खनन के लाभ और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच संतुलन बनाया जा सके।
Editor – Niraj Jaiswal
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